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Sunday 31 December 2017

अनुच्छेद :- 30 शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और उनका प्रबंधन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार

अनुच्छेद 30 का उद्देश्य अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करना है। अनुच्छेद 30, अनुच्छेद 29 से व्यापक अधिकार देता है। अपनी रुचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना औऱ प्रशासन का अधिकार, शिक्षा का माध्यम और पढ़ाए जाने वाले विषयों को चुनने के जैसे  अधिकार शामिल हैं। अनुच्छेद 30 में अल्पसंख्यक वर्गों को जो अधिकार दिए गए हैं, वह अनुच्छेद 29 की भावना को क्रियान्वित करने हेतु दिए गए हैं।

अनुच्छेद 30 (1) :- सभी अल्पसंख्यक वर्गों को धर्म या भाषा पर आधारित अपनी रुचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना का और प्रशासन का अधिकार होगा।

अनुच्छेद 30 (1क) :- यदि राज्य अल्पसंख्यक वर्ग की शिक्षण संस्था की सम्पत्ति को अर्जित करना चाहता है तो उसे पूर्ण प्रतिकर देना होगा।

संविधान में 'अल्पसंख्यक' शब्द की परिभाषा नहीँ दी गई है। किन्तु अनुच्छेद 29, 30 में जिन अल्पसंख्यक वर्गों का उल्लेख किया गया है उनके सम्बन्ध में केरल शिक्षा विधेयक, 1958 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि कोई समुदाय जिसकी जनसँख्या (राष्ट्रीय स्तर पर या प्रान्तीय स्तर पर) 50 प्रतिशत से कम है, वह राष्ट्रीय अल्पसंख्यक या राज्यस्तरीय अल्पसंख्यक वर्ग होगा।

                  राज्य का हस्तक्षेप

राज्य अनुच्छेद 30 में दिए गए स्थापना और प्रशासन के अधिकार का समाज या लोकहित में अतिक्रमण कर सकता है। शिक्षकों व् पाठ्यक्रम के मानक पर खरे न उतरने तथा राष्ट्रद्रोही गतिविधियों के शिक्षण संस्थाओं में संचालित करने जैसे विषयों पर राज्य हस्तक्षेप कर सकता है।

अनुच्छेद 30 (2) :- राज्य ऐसी संस्थाओं से इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह किसी धार्मिक संप्रदाय के प्रबन्धन में हैं।

सेंट स्टीफेन कॉलेज  बनाम  दिल्ली विश्वविद्यालय, के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाओं में 50 प्रतिशत अन्य समुदाय के छात्रों को प्रवेश देना होगा।

अहमदाबाद सेंट ज़ेवियर कॉलेज  बनाम  गुजरात राज्य, AIR 1974 SC 1389 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि प्रबन्धन और  मान्यता का अधिकार मूल अधिकार नहीँ है। प्रबंधन के अधिकार का अर्थ है कि संस्थाओं में कार्यों का प्रभावी रूप से संचालन करना। प्रबंधन के अधिकार में चार सिद्धान्तों का समावेश होना चाहिये :-

1. शासकीय तंत्र,

2. शिक्षित अध्यापक,

3. छात्रों के विषय चुनने की स्वतंत्रता व्

4. अपनी संपत्ति किसी संस्था के काम आ सके।

अनुच्छेद 29 व् 30 पर सबसे महत्वपूर्ण निर्णय टी• एम्• ए• पाई फाउंडेशन कम्पनी लि•  बनाम स्टेट ऑफ़ कर्नाटक, AIR 2003 SC 355 के वाद में उच्चतम न्यायालय की ग्यारह न्यायाधीशों की पीठ ने निर्णय दिया है कि राज्य और विश्वविद्यालय को धार्मिक और शैक्षिणिक रूप से अल्पसंख्यकों द्वारा चलाई जा रही गैर सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश नीति के मामले का विनियमन करने का अधिकार नहीँ है। राज्य इन गैर सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं के सम्बन्ध में शुल्क एवं प्रवेश को लेकर कोई विधि नहीँ बना सकता।

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Thursday 28 December 2017

संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (cultural and Educational Rights) अनुच्छेद 29 - 30

भारतीय संविधान में समस्त नागरिकों को अपनी संस्कृति एवं लिपि को सुरक्षित रखने के लिए विशेष उपबन्ध दिए गए हैं। यही अधिकार अल्पसंख्यक वर्गों को भी भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त किये गये हैं।

अनुच्छेद 29 (1) :- "भारत के राज्य क्षेत्र में या उसके किसी भाग में निवास करने वाले नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है उसे बनाये रखने का अधिकार एवं संरक्षण देता है।"

अनुच्छेद 29 (2) :- "राज्य द्वारा पोषित या राज्यनिधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति और भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जायेगा।"

अनुच्छेद 29 के खण्ड 2 में दिए गए अधिकार भारत में निवास करने वाले समस्त नागरिकों को प्राप्त हैं। चाहे वह नागरिक अल्पसंख्यक वर्ग का हो या बहुसंख्यक वर्ग का हो। इसमें सभी नागरिकों को राज्य द्वारा पोषित या राज्यनिधि से सहायता प्राप्त  शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश का अधिकार प्रदान किया गया है।

चम्पकम दोराई राजन  बनाम  मद्रास (1951) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने मद्रास राज्य द्वारा निर्मित उस विधि को अनुच्छेद खण्ड 2 में प्रदत्त मूलाधिकार के आधार पर अवैध घोषित कर दिया था जिसमें राज्य के कोष से चलाये जाने वाले मेडिकल कॉलेजों तथा अन्य शिक्षण संस्थाओं में विभिन्न धर्मों एवं जातियों के लोगों को उनके पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण दिया गया था। न्यायालय ने कहा था कि उक्त विधि में आरक्षण के वर्गीकरण का आधार धर्म और जाति थी जबकि अनुच्छेद 29 खण्ड 2 केवल धर्म, मूलवंश, जाति और भाषा के आधार पर वर्गीकरण की अनुमति नहीँ देता है। इसी निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के लिए संविधान में प्रथम संशोधन, 1951 द्वारा अनुच्छेद 15 खण्ड 4 को अंत: स्थापित करना पड़ा।

अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा चलाये जाने वाले स्कूल यदि राज्यनिधि से सहायता प्राप्त करते हैं तो व्ह दूसरे समुदाय के बालकों को प्रवेश देने से इन्कार नहीं कर सकते परंतु अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा अपने वर्ग के पक्ष में 50 प्रतिशत तक स्थान आरक्षित किया जा सकता है

अनुच्छेद 29 खण्ड (3) :- केवल धर्म, मूलवंश, जाति या भाषा के आधार पर शिक्षण संस्थओं में प्रवेश सम्बंधित शर्तों का निषेध करता है, अन्य के आधार पर नहीँ।

प्रश्न यह है कि क्या अन्य आधारों जैसे लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद किया जाना अवैध होगा या नहीं।

किन्तु ऐसा भी विभेद किया जाना अनुच्छेद 29 (2) से प्रतिबंधित न होने पर भी अन्य उपबन्ध जैसे अनुच्छेद 15 (1) के आधार प्रतिबंधित हो जायेगा। जिसमें लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद किया जाना प्रतिबंधित है।

           अनुच्छेद 29 का अपवाद

अनुच्छेद 29 का अपवाद अनुच्छेद 15 (4) है। अनुच्छेद 15(4) के उपबन्ध को लागू करते समय यदि अनुच्छेद 29(2) में दिए गए अधिकार प्रभावित होते हैं तो मूलाधिकार का उल्लंघन नहीँ माना जायेगा।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 तथा 30 में संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी मूलाधिकारों का प्रावधान किया गया है।

अनुच्छेद 29 के अंतर्गत दिए गये अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को प्राप्त हैं। इस अनुच्छेद का उद्देश्य अल्पसंख्यक वर्ग के हितों को संरक्षित करना है।

अहमदाबाद सैंट ज़ेवियर कॉलेज सोसाइटी  बनाम  गुजरात राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि अनुच्छेद 29 (2) का लाभ केवल अल्पसंख्यक वर्ग को ही नहीं बल्कि बहुसंख्यक वर्ग को भी प्राप्त है।

           अल्पसंख्यक का अर्थ

अल्पसंख्यक को भारतीय संविधान में परिभाषित नहीँ किया गया है। यदि अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग अनुच्छेद 29 व् 30 के अर्थ में लिया जाये तो यह कहा जायेगा कि यदि किसी वर्ग की जनसंख्या राज्य की सम्पूर्ण आबादी की 50 प्रतिशत से कम होती है तो उस जनसंख्या को अल्पसंख्यक कहा जायेगा।

अनुच्छेद 29 में सभी नागरिकों विशेषत: (भाषिक और धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग) को अधिकार दिए गए हैं।

जगदेव सिंह  बनाम प्रताप सिंह, 1965 के वाद के अनुसार, भाषा के आरक्षण के लिये आंदोलन का अधिकार भी अनु• 29 के अंतर्गत सम्मिलित है।

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Tuesday 26 December 2017

शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा पर प्रतिबन्ध (अनुच्छेद 28)

भारतीय संविधान के अधीन भारत एक पंथनिरपेक्ष राज्य है अर्थात ऐसा राज्य जिसका कोई धर्म न हो और सभी धर्मों के प्रति समान भाव रखता हो। पंथनिरपेक्ष राज्य इस विचार पर आधारित होता है कि राज्य का विषय केवल व्यक्ति और व्यक्ति के बीच सम्बन्ध से है, व्यक्ति और ईश्वर के बीच सम्बन्ध से नहीँ है। यह व्यक्ति के अन्तःकरण का विषय है।

अनुच्छेद 28 :- ऐसी तीन प्रकार की परिस्थितियों का उल्लेख करता है जब किसी शिक्षण संस्था में धार्मिक शिक्षा प्रतिबंधित रहेगी :-

(1) राज्य निधि से पूर्णतः पोषित शिक्षण संस्था :- ऐसी शिक्षण संस्था जिसकी स्थापना भी राज्य द्वारा की गयी हो और उसका प्रशासन भी राज्य के हाथ में हो, उसे राज्य निधि से पूर्णतः पोषित संस्था कहते हैं। ऐसी शिक्षण संस्थाओं में पूर्ण रूप से धार्मिक शिक्षा का प्रतिबंधित किया गया है।

(2) किसी ट्रस्ट या प्रबंधतंत्र (विन्यास या न्यास) के अधीन स्थापित किन्तु राज्य द्वारा प्रशासित शिक्षण संस्था :- यदि कोई ऐसी शिक्षण संस्था जो किसी ऐसे न्यास या विन्यास के अधीन स्थापित की गई है जिसके अनुसार धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है तो खण्ड 01 का प्रतिबन्ध ऐसी शिक्षा संस्था के संबंध में लागू नहीँ होगा अर्थात उस संस्था में धार्मिक शिक्षा देने पर प्रतिबन्ध नहीँ होगा।

(3) राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त या राज्य निधि सहायता पाने वाली शिक्षण संस्था :- राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त या अनुदान प्राप्त किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश लेने वाले किसी भी व्यक्ति को इस बात के लिए बाध्य नहीँ किया जायेगा कि वह उस संस्था द्वारा प्रदान की जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग ले या उसमें की जाने वाली धार्मिक उपासना में भाग ले, जब तक कि इसके लिए उसकी स्वयं की मर्जी न हो। यदि वह अवयस्क है तो जब तक उसका संरक्षक इसके लिए अपनी सहमति नहीँ देता है।

अनुच्छेद 28 केवल धार्मिक शिक्षा को प्रतिबंधित करता है, नैतिक शिक्षा या धर्म के शैक्षणिक अध्ययन को प्रतिबंधित नहीँ करता।

एस• आर• बोम्मई  बनाम  भारत संघ के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि  पंथनिरपेक्षता संविधान का आधारभूत ढाँचा है।

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार सभी व्यक्तियों को प्राप्त है चाहे वे भारतीय नागरिक हों या विदेशी।

अरुणा राय  बनाम भारत संघ के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के नए पाठ्यक्रम को संवैधानिक माना तथा कहा कि यह न तो अनुच्छेद 28 का उल्लंघन करता है और न ही पंथनिरपेक्षता का उल्लंघन करता है।

अनुच्छेद 28 के उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि किन दशाओं में धार्मिक शिक्षा को शिक्षण संस्थाओं में प्रतिबंधित किया गया है।

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Sunday 24 December 2017

धार्मिक कार्यों के प्रबन्ध की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 26 )

भारतीय संविधान के अंतर्गत सभी व्यक्तियों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। उस स्वतंत्रता पर भारतीय संविधान द्वारा कुछ प्रतिबन्ध भी लगाये गये हैं। जिनके बारे में हम अनुच्छेद 25 में पढ़ चुके हैं। धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को और अधिक विस्तृत करते हुए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 26 में धार्मिक कार्यों के प्रबन्ध की स्वतंत्रता का अधिकार के बारे वर्णित किया गया है।

    
      धार्मिक कार्यों के प्रबन्ध की स्वतंत्रता

अनुच्छेद 26 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को धर्म के मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार तो है ही प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय या उसके विभाग को निम्न अधिकार प्रदान करता है :-

i. धार्मिक या पूर्त उद्देश्यों के लिए संस्थाओं की स्थापना और उसका पोषण का,

ii. अपने धर्म से सम्बंधित कार्यों के प्रबंध का,

iii. चल या अचल संपत्ति का अर्जन और उसका स्वामित्व प्राप्त करने का और

iv. ऐसी संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का।

उक्त स्वतंत्रताओं पर लोक व्यवस्था, सदाचार तथा स्वास्थ्य के हित में प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं।

अनुच्छेद 26 धार्मिक संप्रदायों एवं उनके अनुभवों तक सीमित है अर्थात यह धर्म की सामूहिक स्वतंत्रता प्रदान करता है। सम्प्रदाय और उपसम्प्रदाय सभी धर्मों में पाए जाते हैं।

अनुच्छेद 26 के अंतर्गत जिन विषयों के आधार पर संसद को विधि निर्मित करने की शक्ति प्रदान की गई है। उसके अंतर्गत वह उन समस्त कार्यों या प्रबन्ध तंत्रीय व्यवस्था विनियमित करने का उपबन्ध कर सकती है।

धार्मिक अनुभाग  अर्थात   धार्मिक संप्रदाय का अर्थ

धार्मिक अनुभाग अर्थात धार्मिक सम्प्रदाय का अर्थ ऐसे व्यक्तियों के समूह से है जो एक विशिष्ट नाम के तहत संगठित होते हैं तथा जो सामान्यतया एक धार्मिक सम्प्रदाय या संस्था होती है। जिसका किसी धर्म विशेष में विश्वास होता है।

धार्मिक संस्थाओं से सम्बंधित सम्पत्ति का प्रबंधन कार्य राज्य विनियमित कर सकता है किंतु संपत्ति के प्रबन्ध का अधिकार उस सम्प्रदाय विशेष के पास ही रहेगा। राज्य यह अधिकार उससे लेकर किसी अन्य व्यक्ति में निहित नहीं कर सकता है।

एस• पी• मित्तल  बनाम भारत संघ के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अरबिन्दो सोसाइटी एवं इंटरनेशनल टाउनशिप ओरविले धार्मिक संस्था नहीँ है। श्री अरबिन्दो की शिक्षाएं सिर्फ दर्शन हैं न कि धर्म।

अनुच्छेद 27 के अनुसार किसी व्यक्ति को किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि या पोषण में व्यय के लिए कोई कर देने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा।

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Saturday 23 December 2017

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion) अनुच्छेद :- 25 - 28

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनु• 25 - 28)

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 में सभी व्यक्तियों को धार्मिक स्वतंत्रता इस प्रकार प्राप्त है:-

i. अन्तःकरण की स्वतंत्रता,

ii. अपने धर्म को मानने या आचरण करने की स्वतंत्रता और

iii. अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतंत्रता।

         अन्तःकरण की स्वतंत्रता का अर्थ है कि किसी व्यक्ति द्वारा ऐसे धार्मिक एवं तार्किक विषयों में आस्था और विश्वास जिसे वह बिना किसी कपट के अपनी आंतरिक भावनाओं से प्रेरित होकर स्वीकार करता है।
      
'धर्म' केवल आस्था एवं विश्वास मात्र ही नहीं है बल्कि धर्म को मानने या धर्म के रीति रिवाजों के को निभाने व् उनके पालन में किये गये कार्य भी शामिल हैं जो धर्म के मुख्य तत्व हैं।

उदाहरणार्थ :- हिन्दू धर्म में श्राद्ध करना, पिण्डदान करना, सिक्खों के लिए कृपाण धारण करना जैसा आचरण सभी धर्मों के लोगों द्वारा अपने धर्म के धार्मिक रीति रिवाजों के अनुसरण में किया जाता है, वह धार्मिक आचरण का मर्मभूत तत्व है।

प्रचार :- 'प्रचार' का अर्थ है कि अपने धर्म की मान्यताओं को समझकर उसका प्रचार एवं प्रसार करना न कि किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति को बल प्रयोग से, छल से या प्रलोभन देकर अपने धर्म में परिवर्तित करना।

रेव• स्टेनिस्लास  बनाम  म• प्र• राज्य में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अनु• 25 (1) बलात धर्मान्तरण कराने का अधिकार प्रदान नहीं करता है।

        धर्म की स्वतंत्रता पर पाबंदियाँ

भारतीय संविधान में धार्मिक स्वतंत्रताओं के साथ - साथ कुछ पाबंदियाँ भी लगाई गई हैं जो कि निम्नलिखित हैं :-

अनु• 25 (क) लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के हित में राज्य द्वारा लागू नियमों के अधीन है।

अनु• 25 (ख) के अंतर्गत राज्य धार्मिक आचरण से सम्बंधित किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलापों के सम्बन्ध में प्रतिबंध लगाने वाली विधि बना सकता है।

अनु• 25 (ग) के अंतर्गत राज्य सामाजिक कल्याण और सुधार करने के लिए या किसी सार्वजानिक प्रकार की हिंदुओ की धार्मिक संस्थाओं को हिन्दुओं के सभी वर्गों के लिए खोलने को विधि बना सकता है।

             उपर्युक्त पाबंदियों के अधीन रहते हुए भारत में प्रत्येक व्यक्ति को न केवल धार्मिक विश्वास का, बल्कि ऐसे विश्वास से जुड़े आचरण करने का और अपने विचारों को दूसरों को उपदेश करने का अधिकार है।

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Friday 22 December 2017

अनुच्छेद 24 :- कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध

अनुच्छेद 24 में कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध है। इसके अन्तर्गत बालश्रम के निषेध की घोषणा की गई है, जो इस प्रकार है......

"चौदह वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जायेगा या किसी अन्य परिसंकटमय नियोजन में नहीं लगाया जायेगा।"

अर्थात इसके अनुसार कारखानों या खानों में या ऐसे ही किन्हीं संकटपूर्ण कार्यों में चौदह वर्ष से कम आयु के बालक को लगाये जाने पर प्रतिबंधित किया गया है।

उच्चतम न्यायालय ने एक मामले में कहा है कि अनुच्छेद स्वयं ही संविधान जैसी सर्वोच्च विधि का अंग होने के कारण बालश्रम के निषेध सम्बन्धी किसी विद्यमान विधि के आभाव में भी न्यायपालिका द्वारा इसका क्रियान्वयन किया जा सकेगा। इसके माध्यम से बालकों को सुरक्षा एवं संरक्षा प्रदान की गयी है।

राज्य ने समय - समय पर बाल मजदूरी की रोक के लिये न सिर्फ कानून बनाये बल्कि श्रम आयोग का गठन भी किया गया। समाजसेवी संगठनों, बंधुआ मजदूर मुक्ति संगठनों ने बालकों के ऐसे शोषण को रोकने के लिए न्यायालय में जनहित याचिकाएं दाखिल कर उन्हें न्याय दिलाया।

पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक  बनाम  भारत संघ के वाद में कहा गया है कि भवन निर्माण कार्य में चौदह वर्ष के बच्चों को नहीं लगाया जा सकता क्योंकि वह भी एक जोखिम वाला कार्य है।

एम्• सी• मेहता बनाम  भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि 14 वर्ष से कम आयु के बालकों को किसी कारखाने, खान या संकटपूर्ण कार्यों में नहीँ लगाया जा सकता। न्यायालय ने बालकों के कल्याण के लिए बनाई गई विभिन्न विधियों के क्रियान्वयन के लिए सरकार को विस्तृत दिशा निर्देश भी जारी किये।

अनुच्छेद 23 - 24 में शोषण के विरुद्ध जो अधिकार भारतीय नागरिकों और अनागरिकों को दिए गये हैं उनके बारे में विस्तृत जानकारी हम लोगों ने प्राप्त की। अगले article में हम भारतीय संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार में दिये गए अधिकारों के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे।


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Thursday 21 December 2017

शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right against Exploitation) अनुछेद 23 - 24

भारतीय संविधान में समाज के दुर्बल वर्गों पर, दुराचारी व्यक्तियों द्वारा या राज्य द्वारा शोषण, रोकने के लिए कुछ उपबन्ध हैं।

                     अनुछेद 23

अनुच्छेद 23 इस प्रकार है :-

1. " मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलातश्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस उपबन्ध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा। "
           यह अनुच्छेद सभी व्यक्तियों को (नागरिक व् अनागरिक दोनों) शोषण के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है। ऐसी सुरक्षा राज्य के विरुद्ध भी और प्राइवेट व्यक्ति के विरुद्ध दोनों के विरुद्ध लागू होगी। पूर्व से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था की बुराइयाँ जैसे - बेगार, दासप्रथा या वस्तु के रूप में किसी पुरुष, स्त्री या बच्चे को क्रय - विक्रय करने उसका अनैतिक कार्यों हेतु प्रयोग करने एवं अपंग व्यक्तियों के साथ अमानवीय व्यवहार करने जैसी बातों को रोकता है। इस आधार पर संविधान की प्रस्तावना के अनुसार मानव की गरिमा एवं प्रतिष्ठा को स्थापित करने का उपबन्ध किया गया है।

2. " इस अनुच्छेद की कोई बात, राज्य को सार्वजानिक प्रयोजनों के लिए अनिवार्य सेवा अधिरोपित करने से निवारित नहीँ करेगी। ऐसी सेवा अधिरोपित करने में राज्य केवल धर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीँ करेगा। "
            विधायिका ने इस संबंध में आवश्यक सेवा अधिनियम विधि का निर्माण किया है। इस अनुच्छेद के उल्लंघन को अपराध घोषित किया गया है और कानूनन दण्डनीय भी बनाया गया है।

                  मानव दुर्व्यापार

मानव दुर्व्यापार का अर्थ है दास के रूप में मानव का क्रय विक्रय करना। बच्चों व् महिलाओं का क्रय विक्रय भी इसमें सम्मिलित है।

गौरव जैन  बनाम  भारत संघ के वाद के अनुसार अनुच्छेद 23 के अंतर्गत वैश्याओं से पैदा हुए बच्चों को भी रखा गया है। उन्हें भी अवसर, सुरक्षा, पुनर्स्थापन आदि की समानता का अधिकार प्राप्त होगा।

दीना  बनाम  भारत संघ के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि बिना पारिश्रमिक दिए कैदियों से काम कराना बलातश्रम है और यह अनुच्छेद 23 का उल्लंघन करता है।

नीरजा चौधरी  बनाम  मध्य प्रदेश के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि केवल बंधुआ श्रमिकों को मुक्त कराना ही सरकार की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि उनके पुनर्वास की व्यवस्था करना भी सरकार की जिम्मेदारी है ताकि वे पुनः शोषण का शिकार न हो सकें।

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Wednesday 20 December 2017

अनुच्छेद :- 22 गिरफ़्तारी और निरोध से संरक्षण (Protection against Arrest and Detention)

अनुच्छेद 22 :- कुछ दशाओं में गिरफ़्तारी तथा निरोध के सरंक्षण में प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त है कि वह गिरफ़्तारी और निवारक निरोध दोनों से सुरक्षा प्राप्त करे। अनुच्छेद 22 के अधीन दो प्रकार की गिरफ्तारियों का उल्लेख है :-

1. सामान्य विधि के अधीन गिरफ़्तारी,

2. निवारक निरोध विधि के अधीन गिरफ़्तारी।

(1) सामान्य विधि के अधीन गिरफ़्तारी :- सामान्य विधि के अंतर्गत गिरफ्तार व्यक्ति के अधिकारों के प्रावधान अनुच्छेद 22 के खण्ड (1) एवं (2) दिए गए हैं :-

(i) गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ़्तारी का कारण बताये बिना अभिरक्षा में निरुद्ध नही रखा जायेगा अर्थात गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ़्तारी का कारण जानने का अधिकार प्राप्त है।

(ii) गिरफ़्तार व्यक्ति को अपनी पसंद के अधिवक्ता (विधि व्यवसायी) से परामर्श करने और अपना पक्ष रखवाने अर्थात प्रतिरक्षा कराने के अधिकार से वंचित नहीँ रखा जायेगा।

(iii) गिरफ़्तार व्यक्ति को 24 घंटे के अंदर निकटतम सक्षम मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जायेगा। गिरफ़्तारी के स्थान से न्यायालय तक ले जाने में लगने वाले आवश्यक समय को इसमें शामिल नहीँ किया जायेगा।

(iv) मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना 24 घन्टे से अधिक निरुद्ध नहीँ रखा जायेगा।

अनुच्छेद 22 (3) में यह दिया गया है कि "अनुच्छेद 22 के खण्ड 1 एवं 2" में दिए गए अधिकार निम्नलिखित दो प्रकार की कोटि में आने वाले व्यक्तियों को प्राप्त नहीं होंगे :-

a. विदेशी शत्रु को,

b. निवारक निरोध विधि के अधीन गिरफ़्तार व्यक्ति को।

(2) निवारक निरोध विधि के अधीन गिरफ़्तारी :- जैसा कि आप जानते हैं कि सामान्य गिरफ़्तारी अपराध हो जाने के बाद की जाती है। किंतु निवारक निरोध ( गिरफ़्तारी) अपराध करने से पूर्व की जाती है। यह गिरफ़्तारी अपराध होने से रोकने को की जाती है। यह कार्यवाही अपराध निवारण को की जाती है इसलिये इसे निवारणात्मक कार्यवाही भी कहा जाता है। भारतीय विधि में निवारक निरोध की कोई भी परिभाषा का उल्लेख नहीँ मिलता है।

निवारक निरोध विधि और उसके अधीन गिरफ्तार व्यक्ति के अधिकार

निवारक निरोध की किसी विधि के अधीन किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार किया जाता है तो
अनुच्छेद 22 के खण्ड 4 से 7 में दी गई प्रक्रिया का पालन किया जायेगा जो कि निम्नवत है :-

अनुच्छेद 22 (4) :-   i. निवारक निरोध विधि के अंतर्गत अधिकतम तीन मास तक निरुद्ध किये जाने का प्रावधान किया जा सकता है।

ii. तीन माह से अधिक निरुद्ध तभी किया जा सकता है जब सलाहकार बोर्ड से समय विस्तार की राय प्राप्त की जा चुकी हो। ऐसी राय सलाहकार बोर्ड द्वारा तीन माह की निरोध अवधि पूर्ण होने से पूर्व दी गई हो।

अनुच्छेद 22 (5) :-  इसके अंतर्गत निरूद्ध व्यक्ति को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं :-

i. इस प्रकार गिरफ्तार व्यक्ति को गिफ्तारी के आधारों से अवगत कराया जायेगा।

ii. परामर्श बोर्ड के विचार के लिए अभ्यावेदन प्रस्तुत करने का अधिकार

iii. परामर्श बोर्ड , निरोध आदेश जारी होने की तिथि से तीन माह के भीतर अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगा।

अनुच्छेद 22 निरोध प्राधिकारी के कर्तव्य के बारे में भी बताता है कि उसका यह कर्तव्य है कि वह निरूद्ध व्यक्ति को आदेश प्रेषित  करने की सूचना दे क्योंकि यह निरूद्ध व्यक्ति का अधिकार है कि वह प्रत्यावेदन दे एवम परामर्श समिति उसे सुने।

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