(अनु• 148)
{अनु• 148 (1), 124 (4)}
महान्यायवादी का पद उन पदों में से है जिसे भारतीय संविधान में विशेष स्थान दिया गया है। वह भारत सरकार का सर्वप्रथम विधि अधिकारी है।
• अनुच्छेद 76 :- संविधान के अनुच्छेद 76 के अनुसार भारत के महान्यायवादी की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। जो प्रथम नियुक्ति अधिकारी होता है।
• ऐसा व्यक्ति महान्यायवादी नियुक्त किया जा सकता है जो उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने की योग्यता रखता हो।
• महान्यायवादी भारत सरकार को विधि सम्बन्धी विषयों पर सलाह देता है।
• महान्यायवादी राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त पद धारण करेगा।
• महान्यायवादी राष्ट्रपति द्वारा अवधारित पारिश्रमिक प्राप्त करेगा।
• अनुच्छेद 88 के अनुसार महान्यायवादी को सदन में या सदनों की संयुक्त बैठक में तथा संसद की किसी समिति में बोलने तथा भाग लेने का अधिकार होगा। किन्तु उसे मत देने का अधिकार नहीं होगा।
महान्यायवादी की योग्यता
1. वह भारत का नागरिक हो।
2. पाँच वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर रहा हो या दस वर्ष वकालत की हो।
• वह ऐसा वेतन प्राप्त करेगा जो राष्ट्रपति निश्चित करे।
• अनुच्छेद 105 (4) के अनुसार अपने पद के आधार पर उसे संसद के सदस्यों के विशेषाधिकार हैं।
• महान्यायवादी को अपने कर्तव्यों के पालन में भारत के राज्य क्षेत्र में सभी न्यायालयों में सुनवाई का अधिकार होगा।
• महान्यायवादी न तो सरकार का पूर्णकालिक विधि परामर्शी है और न ही सरकारी सेवक।
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उपराष्ट्रपति की पदावधि
अनुच्छेद 67 के अनुसार उपराष्ट्रपति अपने पद ग्रहण की तारीख से पाँच वर्ष तक पद धारण करेगा और अपने पद की अवधि समाप्त हो जाने पर भी तब तक पद पर बना रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी अपना पद ग्रहण नहीँ कर लेता है।
कार्यकाल पूर्ण होने से पहले पद छोड़ना
उपराष्ट्रपति पद पर पदासीन व्यक्ति निम्नलिखित परिस्थितियों में कार्यकाल पूरा होने से पहले अपना पद छोड़ सकता है :-
1. उपराष्ट्रपति अपना त्याग पत्र रष्ट्रपति को देकर पद त्याग सकता है।
2. संसद द्वारा प्रस्ताव करके हटाये जाने पर अर्थात ऐसे संकल्प का प्रस्ताव जिसे चौदह दिन की पूर्व सूचना पर राज्यसभा ने अपने तत्कालीन सदस्यों के बहुमत से पारित किया हो और लोकसभा उससे सहमत हो।
उपराष्ट्रपति के लिए संसद द्वारा महाभियोग की प्रक्रिया संचालित नहीँ की जाती है और न ही कोई जाँच की जाती है। उसे संविधान के उल्लंघन या अन्य किसी भी आधार पर हटाये जाने का आधार लिया जा सकता है।
उपराष्ट्रपति के खाली पद को भरा जाना
उपराष्ट्रपति के पद की अवधि पूरी होने से पहले ही उपराष्ट्रपति का निर्वाचन करा लिया जाता है। किन्तु उपराष्ट्रपति की मृत्यु, पद त्याग, पद से हटाए जाने या अन्य कारणों से खाली हुए पद को भरने के लिए यथाशीघ्र निर्वाचन कराया जायेगा। संविधान में कार्यकारी उपराष्ट्रपति का कोई प्रावधान नहीं है। प्रत्येक उपराष्ट्रपति अपने पद ग्रहण की तारीख से पाँच वर्ष की अवधि के लिए पद ग्रहण करता है। उपराष्ट्रपति के न होने की स्थिति में राज्यसभा में सभापति के कार्यों का निर्वहन उपसभापति करता है।
उपराष्ट्रपति का वेतन, भत्ता
अनुच्छेद 64 के अनुसार उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है।
अनुच्छेद 97 के अनुसार अनुसूची दो के अनुसार राज्यसभा के सभापति को देय वेतन और भत्ते का हकदार होगा। इस वेतन और भत्ते में उसके कार्यकाल के दौरान कोई कमी नहीं की जायेगी सिवाय उस समय के जब वह कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में कार्य कर रहा हो।
जब वह राष्ट्रपति के रूप में कार्य कर रहा होता है तो उसे राष्ट्रपति को देय सभी उपलब्धियां और विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं।
उपराष्ट्रपति के संवैधानिक कार्य और शक्तियाँ :- उपराष्ट्रपति के कार्य और शक्तियाँ निम्नलिखित हैं :-
1. कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य :- जब राष्ट्रपति का पद मृत्यु, पद त्याग व् महाभियोग प्रक्रिया द्वारा हटाये जाने पर या अन्य कारणों से खाली होता है तब उपराष्ट्रपति कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है।
2. राज्यसभा के सभापति के रूप में कार्य :- राज्यसभा का पदेन सभापति होने के कारण उपराष्ट्रपति सभापति को प्राप्त सभी अधिकारों व् शक्तियों का प्रयोग करता है। राज्यसभा की कार्यवाही का संचालन करता है। सदन में अनुशासन बनाये रखना, भाषण की आज्ञा प्रदान करना, असंसदीय भाषा के प्रयोग पर नियंत्रण तथा विधेयकों पर निर्णय करते समय समान मत होने पर निर्णायक मत देना। राज्यसभा द्वारा पारित विधेयकों पर हस्ताक्षर करता है। वह राष्ट्रपति के त्याग पत्र दिए जाने की सूचना लोकसभा अध्यक्ष को देता है और राज्यसभा में प्रस्तुत करता है।
अनुच्छेद 71 के अनुसार राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन से सम्बंधित विवाद की जाँच और उस पर निर्णय उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जायेगा।
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अनुच्छेद 63 के अनुसार भारत का एक उपराष्ट्रपति होगा। उराष्ट्रपति का पद अमरीका से लिया गया है। उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है। राष्ट्रपति के पद से हटने के बाद तुरन्त उसके पद पर पदासीन होता है। यह पद के अनुसार ही कार्यों का संपादन करेगा। इसी तरह के कार्य की वह शपथ लेता है।
राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति एवं राज्यपाल की शपथ का प्रावधान अलग-अलग अनुच्छेदों में किया गया है। इनके अतिरिक्त अन्य पदाधिकारियों की शपथ का प्रावधान अनुसूची III के अंतर्गत किया गया है।
उराष्ट्रपति का निर्वाचन
अनुच्छेद 66 के अनुसार मूल संविधान में यह उपबन्ध था कि उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संयुक्त अधिवेशन में समवेत संसद के दोनों सदनों द्वारा होगा। उपराष्ट्रपति का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार एकल संक्रमणीय मतदान द्वारा होगा। 11 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1961 द्वारा इस प्रक्रिया को समाप्त कर दिया गया। अब उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों लोकसभा और राज्यसभा के निर्वाचित एवं मनोनीत सभी सदस्यों से मिलकर बनने वाले 'निर्वाचन मण्डल' के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय मत पद्धति के द्वारा होता है और ऐसे निर्वाचन में गुप्त मतदान होता है। संसद ने 1952 में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम पारित किया था। उपराष्ट्रपति के निर्वाचन को इस आधार पर न्यायालय में प्रश्नगत नहीँ किया जायेगा कि उस समय निर्वाचक मण्डल में कोई स्थान रिक्त था। उपराष्ट्रपति के निर्वाचन से सम्बंधित सभी विवादों की जाँच उच्चतम न्यायालय करेगा।
उपराष्ट्रपति पद हेतु योग्यतायें
कोई भी व्यक्ति भारत का उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने के लिए तभी योग्य होगा जब वह :-
i. भारत का नागरिक हो,
ii. 35 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो,
iii. राज्यसभा का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो,
iv. वह लाभ के पद पर कार्यरत न हो,
v. संसद के किसी सदन व् राज्य विधानमण्डल के किसी सदन का सदस्य न हो।
अनुच्छेद 65 :- राष्ट्रपति के पद त्याग करने पर, मृत्यु हो जाने पर या पद से हटाए जाने से पद खली होने पर उपराष्ट्रपति ही राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेगा।
उपराष्ट्रपति का पुनर्निर्वाचन
राष्ट्रपति के पद के लिए पुनर्निर्वाचित होने की स्पष्ट घोषणा अनुच्छेद 57 में की गई है किंतु उपराष्ट्रपति के पद के लिए ऐसी कोई स्पष्ट घोषणा नहीँ की गई है। लेकिन अनुच्छेद 66 का स्पष्टीकरण इस बात की गुंजाईश छोड़ देता है कि उपराष्ट्रपति के पद पर कोई भी व्यक्ति दोबारा निर्वाचित हो सकता है।
अनुच्छेद 66 का स्पष्टीकरण :- कोई व्यक्ति केवल इस कारण कोई लाभ का पद धारण करने वाला नहीँ समझा जायेगा कि वह संघ का राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल अथवा संघ का या राज्य का मंत्री है।
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राष्ट्रपति की क्षमादान की शक्ति :- लगभग सभी देशों के संविधान कार्यपालिका के प्रधान को ऐसे व्यक्तियों को क्षमादान करने की शक्ति देते हैं जिनका किसी अपराध के लिए विचारण और दोषसिद्धि हुई है। कार्यपालिका के प्रधान को यह शक्ति इसलिए प्रदान की गई है कि यदि कोई न्यायिक भूल हो गई है तो उसमें सुधार किया जा सके। क्योंकि कोई भी मानवीय कार्य पूर्णतः दोषमुक्त नहीं हो सकता। इसलिये यह शक्ति प्रदान की गई है।
केहर सिंह बनाम भारत संघ, ए• आई• आर• 1998 एस• सी• 653 के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने क्षमादान की शक्ति के सम्बन्ध में निम्नलिखित सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं :-
1. राष्ट्रपति से क्षमादान के लिए जो व्यक्ति आवेदन करता है उसे राष्ट्रपति के समक्ष मौखिक सुनवाई का अधिकार नहीं है।
2. शक्ति का प्रयोग राष्ट्रपति के विवेक के अधीन है।
3. शक्ति का प्रयोग केंद्रीय सरकार की सलाह पर किया जायेगा।
4. राष्ट्रपति न्यायालय के निर्णय पर विचार करने के उपरान्त उससे अलग मत का हो सकता है।
5. राष्ट्रपति के निर्णय का पुनर्विलोकन न्यायालय मारूम बनाम भारत संघ के वाद में बताई गई सीमा के अन्दर ही कर सकता है। इसमें न्यायालय ने कहा है कि न्यायालय वहीं हस्तक्षेप कर सकेगा जहाँ राष्ट्रपति का निर्णय अनुच्छेद 72 से असंगत, तर्कहीन, मनमाना, विभेदकारी असद्भावी है।
क्षमादान की शक्ति मेँ राष्ट्रपति को अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त हैं जिनका अलग महत्व और अलग विधिक परिणाम है। जैसे कि क्षमा, प्रविलंबन, विराम, निलंबन, परिहार और लघुकरण।
क्षमा :- दंडादेश और दोषसिद्धि दोनों से मुक्ति मिलना।
प्रविलंबन :- क्षमा या लघुकरण की कार्यवाही के लम्बित रहने के दौरान दण्ड के प्रारम्भ की अवधि को आगे बढ़ाना।
विराम :- कुछ दंड भोग लेने के बाद शेष दण्ड को आगे बढ़ाना जैसे कि किसी बीमारी या स्त्री के गर्भवती होने की दशा में।
परिहार :- दंडादेश की प्रकृति को परिवर्तित किये बिना उसे घटाता है। जैसे एक वर्ष के कारावास को परिहार करके छः मास का किया जा सकता है।
निलंबन :- दंडादेश को कुछ समय के लिये रोक देना।
लघुकरण :- दंडादेशों में से प्रत्येक का उसके ठीक बाद में आने वाले दंडादेश द्वारा लघुकरण किया जा सकता है। जैसे मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास, कठोर कारावास, साधारण कारावास, जुर्माना।
राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान की शक्तियों की तुलना
1. राष्ट्रपति को सेना न्यायालय द्वारा दिए गए दंड या दंडादेश के सम्बन्ध में क्षमादान, प्रविलंबन, विराम, निलंबन, परिहार व् लघुकरण की शक्ति प्राप्त है जबकि राज्यपाल को ऐसी कोई शक्ति प्राप्त नहीँ है।
2. जहाँ दंड या दंडादेश ऐसी विधि के विरुद्ध अपराध के लिए है जिस पर संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है वहां राष्ट्रपति को उपरोक्त शक्तियाँ प्राप्त हैं जबकि राज्यपाल को ऐसी विधि के विरूद्ध अपराध के सम्बन्ध में जिस पर राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है मृत्यु दंडादेश को छोड़कर राष्ट्रपति के समान शक्तियाँ प्राप्त हैं।
3. राज्यपाल मृत्युदंड को क्षमा नहीँ कर सकता है किंतु मृत्युदंड के प्रविलंबन, परिहार या लघुकरण के मामले में उसकी शक्ति राष्ट्रपति के समान हैं।
आपात शक्तियाँ
कुछ असाधारण परिस्थितियों का सामना करने के लिए भारत के राष्ट्रपति को निम्नलिखित तीन शक्तियाँ प्रदान की गई हैं :-
1. अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राष्ट्रपति को युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से भारत या उसके किसी भाग की सुरक्षा पर संकट होने की स्थिति में 'आपात की उदघोषणा' करने की शक्ति प्राप्त है।
2. अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति को राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल होने की उदघोषणा करने की शक्ति प्राप्त है।
3. अनुच्छेद 360 के अंतर्गत राष्ट्रपति को भारत या भारत के किसी भाग में वित्तीय आपात की उदघोषणा करने की शक्ति प्राप्त है।
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भारत के राष्ट्रपति की शक्तियाँ और कृत्य
अनुच्छेद 53 के अनुसार संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी। इस प्रकार भारत का राष्ट्रपति संघ की "कार्यपालिका शक्ति" का प्रधान होगा।
अनुच्छेद 73 इस कार्यपालिका शक्ति के विस्तारित क्षेत्र को चिन्हित करता है अर्थात संघ या संसद के समस्त विधायन क्षेत्राधिकार पर राष्ट्रपति की कार्यपालिका शक्ति विस्तृत होती है। कार्यपालिका का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है।
1. प्रशासनिक शक्ति :- संघ की कार्यपालिका शक्तियाँ मंत्रिपरिषद में निहित होती हैं और राष्ट्रपति सभी कार्य प्रधानमंत्री सहित मंत्रिपरिषद की परामर्श से करता है। किंतु संघ के सभी कार्य राष्ट्रपति के नाम से होते हैं। राष्ट्रपति को संविधान के अनुसार कोई भी विवेकाधिकार प्राप्त नहीँ है। किंतु प्रधानमंत्री की नियुक्ति और त्यागपत्र दिए हुए मंत्रिपरिषद की स्थिति में कुछ विवेकीय कार्य की शक्तियाँ प्राप्त हैं। प्रशासनिक कार्य के अंतर्गत राष्ट्रपति संविधान द्वारा उपबन्धित पदाधिकारियों, आयोगों, परिषदों की नियुक्ति एवं गठन तथा कुछ अन्य मामलों में नियम बनाने की शक्तियां प्राप्त हैं।
राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है तथा प्रधानमंत्री की सलाह पर अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है। मंत्रिपरिषद की सलाह पर वह सर्वोच्च न्यायालय व् राज्य के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, राज्य के राज्यपालों, भारत के महान्यायवादी, नियंत्रक महालेखा परीक्षक की नियुक्ति करता है तथा वह वित्त आयोग, निर्वाचन आयोग, संघ एवं संयुक्त लोक सेवा आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग, पिछड़ावर्ग आयोग, राजभाषा आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और अंतर्राज्यीय परिषद का गठन करता है।
किंतु सभी पदाधिकारियों एवं आयोगों के अध्यक्षों या सदस्यों को स्वयं या संसद के साथ मिलकर (संसद द्वारा प्रस्ताव पारित करने पर) राष्ट्रपति उन्हें पदच्युत करने की शक्ति भी रखता है।
42वें संशोधन 1976 द्वारा उक्त सभी नियुक्तियों और पदच्युति में राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की राय के अनुसार कार्य करना बाध्य बना दिया गया था। किंतु 44वें संशोधन 1978 द्वारा अनुच्छेद 74 खण्ड 1 में परंतुक जोड़ा गया है जो इस प्रकार है :-
"परन्तु राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद से ऐसी सलाह पर साधारणतया या अन्यथा पुनर्विचार करने की अपेक्षा कर सकेगा और राष्ट्रपति ऐसे पुनर्विचार के पश्चात् दी गई सलाह के अनुसार कार्य करेगा।"
2. न्यायिक शक्तियाँ :- भारत के राष्ट्रपति को अपराध के लिए दोषसिद्ध व्यक्तियों को क्षमादान, प्रतिलंबन आदि की शक्ति प्राप्त है।
3. सैन्य शक्तियाँ :- अनुच्छेद 53 के अनुसार राक्षबलों का सर्वोत्तम समादेश राष्ट्रपति में निहित है। वह रक्षाबलों के प्रमुखों की नियुक्ति करता है। उसे युद्ध और शान्ति की घोषणा करने की भी शक्ति प्राप्त है परन्तु यह सभी कार्य संसद द्वारा निर्मित विधि के अनुसार संचालित होगा। संसद विधि द्वारा इन शक्तियों के प्रयोग को विनियमित या नियंत्रित कर सकती है।
4. राजनयिक शक्ति :- राजनयिक शक्ति एक व्यापक विषय है। कई बार इसे विदेश कार्य शक्ति के समानार्थी समझा जाता है जिसमें वे सभी विषय आते हैं जो संघ को किसी विदेशी राज्य के सम्पर्क में लाते हैं। इन विषयों के बारे में और साथ ही संधियाँ करने और उन्हें लागू करने के बारे में विधायी शक्ति संसद में है। संसद के अधीन रहते हुए अन्य देशों से संधि और करार करने का कार्य राष्ट्रपति को मंत्रियों की सलाह के अनुसार करना होगा।
5. विधायी एवं वित्तीय शक्तियाँ :- अनुच्छेद 79 के अनुसार राष्ट्रपति संसद का अभिन्न अंग है। राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह से संसद से सम्बंधित निम्नलिखित कार्य कर सकता है :-
(i) वह संसद के दोनों सदनों को आहूत करने, उसका सत्रावसान और लोकसभा को विघटित करने की शक्ति रखता है।
(ii) सामान्य विधेयकों पर गतिरोध की दशा में अनुच्छेद 108 के अंतर्गत संयुक्त बैठक बुलाता है। जो अब तक तीन बार बुलाई जा चुकी है :-
(1) दहेज़ अधिनियम 1961,
(2) बैंकिंग सेवा अधिनियम 1978,
(3) पोटा (आतंकवादी निरोधक) अधिनियम 2002
iii. वह संसद के एक सदन या दोनों सदनों में अभिभाषण करता है और इस प्रयोजन हेतु सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकता है। वह किसी लम्बित विधेयक या अन्य विषय के सम्बन्ध में किसी सदन को सन्देश भेजकर शीघ्रतापूर्वक कार्य करने की अपेक्षा कर सकता है। (अनुच्छेद 86)
iv. वह संयुक्त अधिवेशन में विशेष अभिभाषण कर सकता है। यह प्रत्येक वर्ष के आरम्भ के प्रथम सत्र में होता है। इसमें शासन की नीतियों का खुलासा होता है। (अनुच्छेद 87)
v. वह राज्यसभा में 12 ऐसे सदस्यों को मनोनीत करता है जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और सामाजिक विषयों का विशेष ज्ञान है।
वह लोक सभा में दो एंग्लो इण्डियन सदस्यों को भी मनोनीत कर सकता है।
(अनुच्छेद 80 (1) अनुच्छेद 331)
vi. राष्ट्रपति की कुछ प्रतिवेदन और कथनों को संसद के समक्ष रखने की शक्ति :-
(1) वार्षिक वित्तीय विवरण-बजट और अनुपूरक विवरण।
(2) वित्त आयोग की सिफारिश और उसकी कार्यवाही रिपोर्ट अनु• 281 में दी गई है।
(3) संघ लोकसेवा आयोग के प्रतिवेदन एवं जहाँ आयोग की सलाह स्वीकार नहीँ की गई है वहाँ उसके कारण। (अनु•323)
(4) SC/ST के विशेष अधिकारी का प्रतिवेदन अनु• 338 और पिछड़े वर्ग आयोग का प्रतिवेदन अनु• 340 में दिया गया है।
vii. विधायन के लिए राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी
कुछ ऐसे विषय हैं जिस पर विधि बनाने से पूर्व राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी अपेक्षित है :-
(1) किसी राज्य के क्षेत्र, सीमा या नाम में परिवर्तन सम्बन्धी विधेयक। (अनु• 3)
(2) धन एवं वित्त विधेयक। [अनु• 117 (1) ]
(3) जिस विधेयक से भारत की संचित निधि से धन व्यय करने का प्रयोजन हो।
[अनु• 117 (3)]
(4) ऐसा विधेयक जो ऐसे कराधान को प्रभावित करता है जिनसे राज्य हितबद्ध हैं या उन सिद्धांतों को प्रभावित करता है जिनसे राज्य को धन का वितरण किया जाता है।
[अनु• 274 (1)]
(5) व्यापार की स्वतंत्रता पर निर्बन्धन अधिरोपित करने वाले राज्य विधेयक।
(अनुच्छेद 304 का परंतुक)
vii. उच्च न्यायालय की अधिकारिता प्रभावित करने वाला विधेयक, किसी राज्य के अन्दर या दूसरे राज्यों के साथ व्यापार आदि पर प्रतिबन्ध लगाने वाला विधेयक और वित्तीय आपात के लागू होने की दशा में राज्य के सभी धन विधेयकों को।
विधेयकों को अनुमति देने सम्बन्धी शक्ति को राष्ट्रपति की वीटो शक्ति कहा जाता है। संसद द्वारा पारित विधेयकों को जब राष्ट्रपति के समक्ष अनुमति के लिए प्रस्तावित किया जायेगा तो वह चार प्रकार से कार्य करता है :-
(1) विधेयक की अनुमति देता है।
(2) अनुमति रोक लेता है।
(3) पुनर्विचार के लिए संसद को वापस लौटाता है।
(4) सुविधानुसार शीघ्रता से अनुमति प्रदान करता है।
उक्त शब्दावलियाँ अनुमति देने से इन्कार करने, संसद से पुनर्विचार की अपेक्षा करने तथा सुविधानुसार अनुमति देने से क्रमशः अत्यंतिक वीटो, निलम्बनकारी वीटो तथा जेबी वीटो की शक्तियाँ उद्भूत होती हैं।
अत्यंतिक वीटो का प्रयोग अब तक दो बार किया गया है :-
(1) पेप्सू विनियोग विधेयक, 1954
(2) संसद सदस्य वेतन भत्ता और पेंशन विधेयक, 1991 ।
निलम्बनकारी वीटो का प्रयोग कभी नहीं किया गया है जबकि जेबी वीटो का प्रयोग एक बार भारतीय डाकघर संशोधन विधेयक, 1986 में किया गया था।
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