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Wednesday 3 January 2018

न्यायिक पुनर्विलोकन (Judicial Review) अनुच्छेद 13

अनुच्छेद 13 राज्य के विरुद्ध नागरिकों को मूल अधिकारों के संरक्षण की गारण्टी देता है। यदि राज्य द्वारा कोई ऐसी विधि बनाई जाती है जो मूल अधिकारों का उल्लंघन करती है तो न्यायालय उसको शून्य घोषित कर सकता है। यह कार्य न्यायिक पुनर्विलोकन द्वारा किया जाता है। न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति न्यायालय को अनुच्छेद 13 से प्राप्त होती है । इसके द्वारा न्यायालय विधियों की संवैधानिकता की जाँच करता है।
           अनुच्छेद 13 को मूल अधिकारों का प्रहरी भी कहा जाता है।

अनुच्छेद 13 (1) :- इसमें कहा गया है कि भारतीय संविधान के लागू होने के ठीक पहले भारत में प्रचलित सभी विधियाँ उस मात्रा तक शून्य होंगी जहाँ तक कि वे संविधान भाग तीन के उपबंधों से असंगत हैं।

अनुच्छेद 13 (2) :- राज्य ऐसी कोई विधि नहीँ बनायेगा जो मूल अधिकारों को छीनती है। इस खण्ड के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।

अनुच्छेद 13 (3) :- विधि के अंतर्गत भारत में विधि के समान कोई अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, उपनियम, अधिसूचना, रूढ़ि व् प्रथा आते हैं अर्थात इनमें से किसी के भी द्वारा मूल अधिकारों का उल्लंघन होता है तो उन्हें न्यायालय में रिट के द्वारा चुनौती दी जा सकती है।

अनुच्छेद 13 (4) :- अनुच्छेद 13 में यह खण्ड "संविधान के 24 वें संशोधन" द्वारा जोड़ा गया है। इसके अनुसार इस अनुच्छेद की कोई बात अनुच्छेद 368 के अधीन किये गए संविधान संशोधन को लागू नहीँ होगी।

यह अनुच्छेद सरकार के तीनों अंगों विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को अपनी - अपनी हद में रहने को बाध्य करता है ताकि यह एक दूसरे के क्षेत्रों में हस्तक्षेप न करें।

संविधान में अनुच्छेद 13, 32 व् 226 के द्वारा उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति दी गई है। कुछ प्रावधानों को न्यायिक पुनर्विलोकन से बाहर रखा गया है।

अब देखते हैं कि अनुच्छेद 13 किस प्रकार मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाली विधियों को शून्य घोषित करता है।

गोलकनाथ  बनाम  पंजाब राज्य के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान संशोधन को भी विधि की परिभाषा में शामिल किया है। इसका परिणाम यह हुआ कि राज्य संविधान संशोधन द्वारा मूल अधिकारों को कम नहीँ कर सकता था।

उक्त निर्णय के प्रभाव को दूर करने के लिए संसद द्वारा 24 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया गया और अनु• 13 में खण्ड 4 जोड़ा गया। जिसमें कहा गया है कि अनु• 13 की कोई बात अनु• 368 के अंतर्गत किये गए संशोधन को लागू नहीं होगी।

केशवानन्द भारती  बनाम  केरल राज्य, AIR 1973 SC 1461 के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ के मामले में दिये गए अपने निर्णय को उलट दिया तथा 24 वें संशोधन अधिनियम को वैध घोषित किया और कहा कि संसद को मूलाधिकारों सहित संविधान करने की शक्ति है किंतु वह असीमित नहीँ है। इससे संविधान का मूलभूत ढाँचा नष्ट नहीं हिना चाहिए।

केशवानन्द भारती के निर्णय के  पश्चात् संसद ने 42 वां संविधान संशोधन पारित किया और उसमें प्रावधान किया कि संसद की संशोधन की शक्ति असीमित हैं। संविधान के संशोधन को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीँ दी सकती।

मिनर्वा मिल्स  बनाम भारत संघ, AIR, 1980 SC 1789 के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने 42 वें संविधान संशोधन द्वारा अनु• 368 में जोड़े गये खण्ड 4 व् 5 को असंवैधानिक घोषित किया।

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1 comment:

Unknown said...

संविधान संशोधन का अंतिम निष्कर्ष क्या है? 42वाँ में कहा गया कि । किसी भी न्या० में चुनौती नहीं दी जा सकती तब तो कुछ भी संशोधन हो समता है?